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________________ 223 के अधिकपदत्व के प्रत्ययांश ( पदोश) आदि के अनेक उदाहरप प्रस्तुत किये हैं, यथा - समासादि के आश्य से ही उत्त अर्थ की प्रतीति हो जाने पर भी पत्यय आदि की अधिकता तथा उपमा, रूपक, समातोक्ति अन्योक्ति आदि अलंकारों में अधिक पदों का प्रयोग आदि। साथ ही उन्होंने कहीं पर गुण हो जाने का उदाहरप भी "यदचना हितमति" इत्यादि प्रस्तुत किया है। इसमें दसरा "विदन्ति' पद अन्ययोगव्यवछेद के लिये है।' 14 उक्तपदत्व - किसी पद का दो बार प्रयोग करना उक्तपदत्व दोष है। जैसे - "अधिकरतलतल्यं .. ' इत्यादि उदाहरप में "लीला" पद का दो बार प्रयोग । आचार्य हेमचन्द्र ने इसके गुप हो जाने के उदाहरप भी प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार उक्तपदत्व दोष लाटानुपात में, शब्दशक्तिमल ध्वनि में और कहीं विहित अनुवाद में गुप हो जाता है। तीनों के उदाहरप क्रमशः 'जयतिक्षुण्पतिमिर", "ताला जायन्ति गुपा जाला । एवं "जितेन्द्रियत्वं इत्यादि दिये हैं।' 5 अन्यानस्थपदता - जहाँ पर पर्दो की स्थिति अनुचित स्थान पर होती है। वहीं पर यह दोष होता है। जैसे - "प्रियेण संगथ्य विपक्षसंनिधो निवेशितां वक्षति पीवरस्तने । मजं न काचिद विहौ जलाविला वसन्ति हि प्रेम्पि गुणा न वस्तुनि।' • काव्यानु, वृति पृ, 209 - वही, वृत्ति , पृ. 209 . वही, वृत्ति , पृ. 209-210
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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