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________________ 222 न्यनपदता - आवश्यक पद का न कहना न्यूनपदता या न्यनपदत्व दोष है। यथा - "तथाभूतां दृष्ट्वा ' इत्यादि पद्य में "अस्माभिः' पद का तथा खिन्नम से पूर्व "इत्थं पद का कथन आवश्यक है, किन्तु ये पद नहीं कहे गये हैं, अत: न्यूनपदता दोष है।' आ. हेमचन्द्र ने इसके अनेक उदाहरण दिये हैं। उपमा की न्यूनता का उदाहरण प्राकृत में “संयचक्का - अजा---' इत्यादि दिया है। इसमें उपमान के रूप में कमल व मृपाल की उक्ति होने पर भी उपमेयमत मुख और मुजा का उल्लेख न होने से न्यूनपदत्व दोष है। इसके साथ - साथ उन्होंने कहीं पर न्यूनपदत्व के गुण हो जाने का उदाहरप दिया है - - - 'गादालिंजनवामनीकृत - - -' इत्यादि तथा कहीं पर न गुप और न दोष होने का उदाहरप - "तिष्ठेत कोपवशात' इत्यादि प्रस्तुत किया है। अधिकपदत्व - अधिक पद का होनाही अधिकपदत्व दोषं है । यथा - "स्फटिकाकृतिनिर्मल : प्रकामं प्रतिसंक्रान्त निशातशास्त्रतत्वः । अनिरूद्धसमन्वितो क्तियुक्तिः प्रतिमल्लास्तमयोदयः स कोऽपि ।। यहाँ "आकृत शब्द अधिक होने से दोषं है। इसके अतिरिक्त आ. हेमचन्द्र 1. वही, वृ. पृ. 202 - वही, कृ. पृ. 205 3 वही.. पु. 205 + वही, तु, पू, 205-206
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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