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________________ वहाँ पर "अपक्रम" नामक दोष माना जाता यथा - (वह ) भोजन करके स्नानोपरान्त गुरूजनों व आचार्यों की वन्दना करता है। यहाँ लोक व्यवहार में प्रसिद्ध सर्वप्रथम स्नान, पुनः गुरूओं व देवताओं की वन्दना तत्पश्चात अन्य भोजनादि क्रिया - इस क्रम का उल्लंघन करने से अपक्रम नामक दोष है। - $58 छन्दोभ्रष्ट छन्दःशास्त्र के विरूद्ध वाक्य का प्रयोग छन्दोभ्रष्ट कहलाता है। यथा— सजयतु जिनपति:' इस श्लोकाई में अनुष्टुप छन्द का पाद है - किंतु इसमें छन्दः शास्त्रनिर्दिष्ट अनुष्टुप छन्द क लक्षण नहीं है, क्योंकि अनुष्टुय का लक्षण है - " श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्" इत्यादि । 868 रीतिभ्रष्ट 219 इस नियमानुसार उपर्युक्त उदाहरण में जो षष्ठ वर्ष "न" है उसे गुरु होना चाहिए था न कि लघु, जैसा कि यहाँ पर है। अतः यहाँ छन्दो भ्रष्ट दोष माना गया है। - जहाँ वाक्य में रीति विशेष का यथेष्ट निर्वाह न रीतिभ्रष्टमनिर्वाहो यत्र रीतेर्भवेद्यथा । किया गया हो, यथा जिनो जयति स श्रीमानिन्वाद्यमरवन्दितः ॥12 1. वाग्भटालॅंड कार, 2/23 2 वही, 2/24.
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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