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________________ 218 28 व्यस्त सम्बन्ध- किन्ही दो पदों में परस्पर सम्बन्धी पटों के N Ho दर-दर रहने पर "व्यस्त सम्बन्ध" नामक दोष उत्पन्न होता है। यथा - अर्हता में अगगण्य तत्त्ववेत्ता (जिन) देव आप लोगों को सम्पत्ति धन - धान्य प्रदान करें ।। इस वाक्य में "आध:" और "अर्हताम्" इन दोनों पदों का परस्पर सम्बन्ध होने पर भी दूर - दूर स्थित होने से व्यस्तसम्बन्ध- दोष है। १४ असम्मित - जहाँ शब्द और अर्थ संतुलित न हो, वहाँ पर विद्वज्जन असम्मित नामक दोष मानते हैं। यथा - मानसरोवर में निवास करने वाला पक्षी ( हंस) जिसका वाहन है उन (ब्रह्माजी ) के आसन (कमल) को समान लोचनों वाले (अर्थात कमल - नयन जिनदेव) आप लोगों को अन्धकार के शत्रु (सूर्य) के विपधी (राहु) के शत्रु (विष्प) की प्रिया (लक्ष्मी) अर्थात श्री - सम्पत्ति प्रदान करें। इस श्लोक में कमलनयन हेतु "मानतोकपतथानदेवासनविलोचनः और लक्ष्मी के लिये "तमोरिपुविपक्षारिप्रियां इन दो लम्बे-लम्बे पदों का प्रयोग होने से अतम्मित दोष है। 148 अपक्रम - विभिन्न कार्यों के पूर्वापर कम की लोक प्रतिद मान्यता का उल्लंघन करके जहाँ पर क्रम में उलट फेर कर दिया जाता है, • वही, 2/19 2 बाग्भटालड कार 2/20-21
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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