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________________ 898 अविमुष्ट विधेयांश : जहाँ विधेयरूप वाक्यांश का प्रधानतया निर्देश नहीं किया जाता । 108 विरूद्ध बुद्धिकृत : विपरीत अर्थ की प्रतीति कराने में समर्थ 12 ।। नेयार्थ : लक्षितार्थ का जहाँ बोध होता है वह नेयार्थ है । 3 8128 निहतार्थ : उभयार्थवाचक शब्द रहने पर भी अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग करना निहतार्थ दोष है 14 जैसे *यावकरसार्द्रप्रहारशोणित इत्यादि पद्य में शोणित शब्द रूधिर अर्थ में प्रसिद्ध होने से दोषयुक्त है। 8138 अप्रतीत : आगम में ही प्रसिद्ध अप्रतीत है 15 8148 ग्राम्य : असंस्कृत जन में प्रचलित उक्ति ग्राम्य है । " 8158 संदिग्ध : एक पद के दो अर्थों का बोधक होने पर जो अन्य अर्थ के 7 प्रतिशासन से संशय होता है वह संदिग्ध शब्द दोष है । है । 215 - 16 अवाचक : अभीप्सित अर्थ के प्रतिपादन में असमर्थ अवाचक शब्द दोष 8 इस प्रकार पद दोषों के इस क्रम में आचार्य मम्मट ने सोलह, वाग्भट प्रथम ने आठ, हेमचन्द्राचार्य ने दो, नरेन्द्रप्रभसूरि ने तीन व वाग्भट द्वितीय I. Entitratntntnitiv -
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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