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________________ 818 निरर्थकत्व पापूर्ति हेतु "च", "हि" इत्यादि पदों का प्रयोग निरर्थक पददाष कहलाता है । मम्मट की भांति आचार्य हेमचन्द्र ने इसका यथावत प्रतिपादन किया है। पदांश की निरर्थकता का उदाहरण भी आचार्य हेमचन्द्र ने इसी के साथ प्रस्तुत कर दिया है जो कि मम्मट से मिलता है 12 उन्होंने प्रत्युदाहरण प्रस्तुत करने के बाद यह भी स्पष्ट किया है कि यमकादि अलंकार में निरर्थक दोष नहीं होता ऐसा किसी ने माना है । 3 828 - - असाधुत्व व्याकरण शास्त्रविरूद्ध पदों का प्रयोग करना असाधुदोष है।" जैसे - " उन्मज्जन्मकर भुजा भ्यामाजघ्ने विषमविलोचनस्थ वक्षः पद्य में "आजघ्ने" पद असाधु हैं क्योंकि न् धातु अकर्मक है। यह आत्मैनपद में अप्राप्त है। आचार्य मम्मट ने जिसे च्युतसंस्कृति नाम से प्रतिपादित 212 किया है उसी को हेमचन्द्राचार्य ने असाधु नाम दिया है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार अनुकरण में असाधुदोष नहीं रहता है, जैसे - "पश्यैष च गवित्याह । * -5 1. तत्र चादीनां निरर्थकत्वम् । वही, वृत्ति पृ. 199 तुलनीय - काव्यप्रकाश, कृ. पृ. 268 2. काव्यप्रकाश, पृ. 296 एवं काव्यानुशासन, कृ. पृ. 200 3. यमकादौ निरर्थकत्वन दोष इति केचित् । काव्या. वृत्ति, पृ. 2008 4. शब्दशास्त्रविरोधोडसाधुत्वम् । वही, पृ. 201 5. काव्यानु, वृत्ति, पृ. 201
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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