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यद्यपि व्याकरण
शास्त्र में हन् धातु हिंसा और गमन न् हिंसागत्योःð इन दोनों अर्थों में पठित है किन्तु कवियों द्वारा हन् धातु का प्रयोग हिंसा अर्थ में ही प्रसिद्ध होने से यहाँ अप्रसिद्ध दोष है।
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878 असम्मत : जो पद किसी अर्थ को प्रकट करने में समर्थ होते हुए भी सर्वमान्य नहीं होता उस पद का प्रयोग "असम्मत" नामक दोष की उद्भावना करता है। यथा सूर्य की रश्मियाँ अम्भोज अन्धकार के कीचड़ अथवा अंधकार रूप कीचड़ को धोती हैं । यहाँ यद्यपि "अंभोज पद कीचड़ का बोध कराने में समर्थ है,
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तथापि अंभोज पद का यह अर्थ
सर्वसम्मत नहीं है। अतः यहाँ असम्मत दोष है।
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888 ग्राम्य : जहाँ कोई पद प्रसंग विशेष में अनुचित होने पर भी प्रयुक्त
हो वहाँ "ग्राम्य" दोष समझना चाहिए। यथा
देवताओं को पुष्पों से
आच्छादित करके मैं उनके आगे धान्य - हविष् इत्यादि फेंकता हूँ। 2 यहाँ देवताओं को पुष्पों से ढंकना और सामने धान्य फेंकना दोनों ग्राम्य प्रयोग होने से ग्राम्य दोष हैं।
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१। निरर्थकत्व, और 828 असाधुत्व 13
आचार्य हेमचन्द्र ने मात्र दो पद - दोषों को स्वीकार किया है
1. वही, 2/14
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वही, 2/15
3. निरर्थका साधुत्वे पदस्य । काव्यानुशासन, 3/4
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