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जैनाचार्य वाग्भट - प्रथम ने आठ पद-दोषों का उल्लेख किया है- । अनर्थक, 828 श्रुतिकटु, १४ व्याहतार्थ, ६५४ अलक्षप, 5 स्वसंकेतप्रक्लृप्तार्थ, 363 अप्रसिद्ध 378 असम्मत, और 8 गाम्य ।' इनके लक्षण इस प्रकार है - 18 अनर्यक : जो पद प्रस्तुत विषय के अनुकूल न हो उसे अनर्थक कहते है। यथा - मैं लम्बोदर गपेशजी की स्तुति करता हूँ। 2 यहाँ पर विनायक
गपेशजी के प्रसंग में "लम्बोदर' विशेषप अनुपयुक्त होने के कारप काव्य में अनर्यक नामक दोष उत्पन्न करता है।
328 श्रुतिकटु : काव्य में अत्यन्त कर्पकटु अक्षरों के प्रयोग से उत्पन्न होने वाले दोष को आचार्यों ने "श्रुतिक्टु' कीसँजा प्रदान की है। यथा - इस सुन्दरी को सृष्टा (बमा)ने एकाग्रचित से माया है, ऐसा मैं मानता हूँ। यहाँ "सृष्टा पद में टकार और रकार का प्रयोग दूषित है क्योंकि ये दोनो कर्कश वर्ष है।
13 व्याहतार्थ : ऐसे पद का प्रयोग जिससे इष्टार्थ के अतिरिक्त, अन्य अर्थ का प्रतिपादन होता है और वह अन्य अर्थ इष्टार्य में बाधा डालता हो "व्याहतार्थ नामक दोष कहलाता है। यथा - हे राजन् । मात्र आप ही पृथ्वी के उपकार मतलोपकृतो में लगे हैं। यहाँ "भूतलोपकृती' पद • वाग्भटालंकार, 2/6-7 2. वही, 2/8 , वही, 2/9 + वही, 2/10