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________________ 208 शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। पुनः शब्ददोष के तीन भेद किए हैं - पददोष' पदांश दोष और वाक्यदोष। इस प्रकार मम्मटसम्मत समस्त दोषों को पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - 81 पददोष, 12पदांशदोष, 38 वाक्यदोष, १५ अर्थदोष और 58 रसदोष। यद्यपि परवर्ती जैनाचार्य मम्म्टानुगामी है तथापि किसी - किसी जैनाचार्य, विशेषतः हेमचन्द्राचार्य ने पद और वाक्य में सम्मिलित उभयदोषों को भी स्वीकार किया है। अतः इन समस्त दोषों का विवेचन कम इप्स प्रकार वर्पित करना सम्यक् होगा - 818 पददोष, 28 पदोश-दोष, 33 वाक्य - दोष, 43 उभय-दोष, 853 अर्थ - दोष और १०१ रस - दोष। पद दोष: सुप् अथवा तिड. प्रत्यय से युक्त शब्द पद कहलाता है, ' और उस पद में रहने वाले दोषों को पददोष कहते हैं। आचार्य मम्मट ने अपने काव्य प्रकाश के सप्तम उल्लास में सर्वप्रथम सोलह पददोर्षों का उल्लेख किया है - 813 श्रुतिकटु, 28 च्युतसंस्कृति, 3 अप्रयुक्त, १५ असमर्थ, {5 निहतार्थ, 868 अनुचितार्थ, 878 निरर्थक, 888 अवाचक, 98 अश्लील, 103 संदिग्ध, 11 अप्रतीत, 8128 ग्राम्य, 3138 नेयार्थ, 1148 क्लिष्ट, 15 अविमृष्ट विधेयांश, और 168 विरुद्धमतिकृत 12 I. "सुप्तिडन्तं पदसा' - अष्टाध्यायी ।/4/14 लघुसिदान्तकौमुदी से उपत 2 काव्यप्रकाश, 7/50-51
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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