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________________ 206 दोष कहते हैं। आ. नरेन्द्रप्रभसार वैफिय के लोप को दोष मानते हैं, वह विशेष रूप से रस की क्षति होने पर होता है और गौप रूप से शब्द और अर्य की क्षति होने पर ।' दोष - मेद : काव्यगत दोषों की संख्या में उत्तरोत्तर विकास हुआ है। सर्वप्रथम आचार्य मरत ने दस दोषों का उल्लेख किया है - गूदार्थ, अर्थान्तर, अर्थहीन, भिन्नार्थ, एकार्य, अभिप्लुतार्य, न्यायदोत, विषम, विसन्धि एवं शब्दच्युत 12 इसके पश्चात आचार्य भामह ने अपने काव्यालंइ. कार में चार स्थलों पर दोषों का निरूपप करते हुए सर्वप्रथम छ: काव्य दोषों को गिनाया है - नेयार्थ, क्लिष्ट, अन्यार्थ, अवाचक, अयुक्तिमत और गढशब्दाभिधान । तदनन्तर श्रुतिदष्ट, अर्थदुष्ट, कल्पनादुष्ट और श्रुतिकष्ट - ये चार वापी दोष कहे हैं । इसी क्रम में मेधावी के अनुसार हीनता, असंभव, लिंगभेद, वचनभेद, विपर्यय, उपमानाधिक्य और असदर्शता नामक सात दोषों का विवेचन किया है । तत्पश्चात् काव्यसौन्दर्य के घातक अठारह प्रकार के दोषों का उल्लेख किया है- अपार्य, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, अपकम, शब्दहीन, यतिमष्ट, 1. वैचित्र्यध्याहतिर्दोषः सा च भम्ना रसधतेः। तद पूर्व रस एवैषः भक्त्या शब्दार्थयोः पुनः।। अलंकारमहोदधि, 5/1 2. नाट्यशास्त्र, 17/88 काव्यालंकार, 1/37 + वही, 1/47 काव्यालंकार, 2/39-40 3.
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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