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________________ 205 दोषों को गपों का विपर्यय कहना एक विपरीत किया है।' ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन अनौचित्य को ही काव्य-दोष स्वीकार करते हैं। 2 आ. मम्मट आनन्दवर्धन का ही अनुकरप करते हुए लिखते हैं कि - जिससे मख्यार्य का अपकर्ष होता है वह दोष है, और काव्य में रस भावादि ही मुख्यार्य है। परवर्ती आचार्यों ने इसी दोष स्वरूप का प्राय : अनसरप किया है। जहाँ तक जैनाचार्यों द्वारा दोषस्वरूपादि विवेचन का प्रश्न है, तो उन्होंने इसका वर्णन इस प्रकार किया है - जैनाचार्य हेमचन्द्र की विचारधारा मम्मट की विचारधारा से बहुत साम्य रखती है। मम्मट की भांति उन्होंने भी पहले दोष का सामान्य लक्षप दिया है। उन्होंने गुण और दोष इन दोनों का एक ही कारिका के द्वारा सामान्यतया लक्षप दे दिया है। वे "रस के अपकर्षक हेतुओं को दोष कहते हैं अर्थात जिसके द्वारा रसानुभूति में बाधा उपस्थित होती है, उते काव्य-दोष कहते हैं। ये दोष रस के ही आश्रित होते हैं, किन्तु गौफरूप से वे शब्द और अर्थ के भी अपकर्षक होते हैं। क्योंकि शब्द और अर्थ रस के उपकारक होते हैं, अतएव परस्पर या शब्द और अर्थ के भी अपघातक को 1. पैनाचार्यो का अलंकारशास्त्र में योगदान से उधत, पु. 141 2. अनौचित्यादते नान्यद रसभंगस्य कारपस। ध्वन्यालोक, पृ. 259 : मुख्याहतिर्दोषो रसश्च मुख्य ः काव्यप्रकाश, 7/49 + रसत्योत्कर्षापकर्षहेतु गुपदोषो, भक्त्याशब्दार्ययोः - काव्यानशासन, 1/12
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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