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विषाद : इष्ट वस्तु के न मिलने से चित्त का अनुत्साह "विषाद' कहलाता है। निःप्रवास तथा चिन्ता के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है।
उन्माद : (भूतपिशाचादिरूप)गह तथा (वात पित्तादि रूप)दोषों के कारप मन का पयमष्ट हो जाना 'उन्माद" कहलाता है और उसमें अनुचित
कार्य करने लगता है।
दैन्य : आपत्तियों के कारप मन की विकलता दैन्य कहलाती है। ( चेहरे की) कृष्पता व टकने के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है।
वीडा : पश्चात्ताप अथवा माता-पितादि गुरूजनों की उपस्थित के कारप पृष्टता न करना, क्रीडा कहलाती है।
त्रास : भयंकर वस्तु को देखकर चकित हो जाना त्रास' कहलाता है। शरीर के सिकोड़ने व कापने के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है।
तर्क : वाद आदि के द्वारा एक पक्ष की संभावना तर्क कहलाती है। उससे अंगों का नचाना रूप अनुभाव उत्पन्न होता है।
गर्व : विद्यादि के कारण अन्यों की अवज्ञा करके अपने को बड़ा
सम्झाना "गर्व कहलाता है।
औत्सुक्य :(इष्ट के) स्मरप आदि के कारण इष्ट के प्रति शीघता आदि से अभिमुख प्रवृत्त होना औत्सुक्य कहलाता है।