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________________ 196 विषाद : इष्ट वस्तु के न मिलने से चित्त का अनुत्साह "विषाद' कहलाता है। निःप्रवास तथा चिन्ता के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। उन्माद : (भूतपिशाचादिरूप)गह तथा (वात पित्तादि रूप)दोषों के कारप मन का पयमष्ट हो जाना 'उन्माद" कहलाता है और उसमें अनुचित कार्य करने लगता है। दैन्य : आपत्तियों के कारप मन की विकलता दैन्य कहलाती है। ( चेहरे की) कृष्पता व टकने के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। वीडा : पश्चात्ताप अथवा माता-पितादि गुरूजनों की उपस्थित के कारप पृष्टता न करना, क्रीडा कहलाती है। त्रास : भयंकर वस्तु को देखकर चकित हो जाना त्रास' कहलाता है। शरीर के सिकोड़ने व कापने के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। तर्क : वाद आदि के द्वारा एक पक्ष की संभावना तर्क कहलाती है। उससे अंगों का नचाना रूप अनुभाव उत्पन्न होता है। गर्व : विद्यादि के कारण अन्यों की अवज्ञा करके अपने को बड़ा सम्झाना "गर्व कहलाता है। औत्सुक्य :(इष्ट के) स्मरप आदि के कारण इष्ट के प्रति शीघता आदि से अभिमुख प्रवृत्त होना औत्सुक्य कहलाता है।
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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