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________________ स्थित विभाव (सीता राम आदि) निश्चित व्यक्ति विशेष में (रत्यादिरूप) स्थायिभाव को रसरूपता को प्राप्त कराते हैं वहाँ रस का आस्वाद नियत व्यक्तिविशेष में होता है। जैसे कि लोक में कोई युवक किसी युवति को लेकर उसके विषय में अपनी रति को श्रृंगाररस के रूप में आस्वादन करता है। यहाँ रस की प्रतीति विशेष विषयक व लौकिकी हुई। जहाँ लोक में वास्तविक रूप मैं स्थित, पर) अन्य में अनुरक्त वनिता को ( अर्थात् परकीया नायिका को ) लेकर अनेक व्यक्तियों में सामान्य विषयक रति परिपोषण होता है, वहाँ नियत व्यक्ति विशेष से सम्बद्ध रूप श्रृंगाररस का आस्वाद नहीं होता है अर्थात् एक स्त्री से अनेक व्यक्तियों को सामान्यरूप से श्रृंगारानुभूति होती है क्योंकि ऐसे उदाहरणों में स्त्री आदि रूप विभावों से सामान्य रूप से अनेक व्यक्ति विषयक . रति आदि स्थायिभाव का आविर्भाव होने से सामान्य विषयक ही रसास्वाद होता है। इसी प्रकार अपने किसी प्रिय बन्धु के वियोग से पीड़ित युवतिको रोते देखकर देखने वाले अनेक व्यक्तियों को सामान्य विषयक ही करुणरस का आस्वाद होता है। इसी प्रकार अन्य रसों में भी दोनों प्रकार की स्थिति होती है।' किन्तु काव्य तथा नाटक में विभावादि वास्तविक रूप मैं विद्यमान नहीं होते है केवल काव्य तथा अभिनय के द्वारा समर्पित होते है। इसलिये उनसे विशेष विषयक रसानुभूति न होकर सामान्य विषयक रसानुभूति ही होती है। 2 1. हिन्दी नाट्यदर्पण, पू, 296-97 2. हिन्दी नाट्यदर्पण, पू, 297 137 -
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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