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________________ 136 अपितु विपरीत होने से आभास हो जायेगा। जो इष्टजनों के वियोग से दुःखी व्यक्तियों के सामने करूपा दि के वर्णन अथवा अभिनय से सुखानुभूति होती है, वह भी यथार्थ में दुःयानमति ही है। क्योंकि दुःखी व्यक्ति दुखियों की वार्ता से सुख जैसा अनुभव करता है और प्रमोदकारी वार्ता से दुखित होता है। अत: करूपादि रस दुःखात्मक ही हैं।' ___ रतों को सुखात्मक और दुःखात्मक स्वीकार करने वाले प्रथम आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र नहीं हैं। इनसे पूर्व भी कुछ इस प्रकार के स्पष्ट कथन मिल जाते हैं। पर नाट्यदर्पप रामचन्द्र गुपचन्द्र का रससिद्धान्त अन्य आचार्यों के सिद्धान्त विलक्षण ही है। वह यह कि अन्य आचार्यों ने रस को अलौकिक माना है। लोक मे होने वाली स्त्री-पुरुष की परस्पर रति को अन्य आचार्यो ने रस नहीं माना है। काव्य नाटक में होने वाले विभावादि को ही उन लोगों ने विभावादि शब्द से कहा है। उनके मत में विभावा दि शब्द मी लोक के नहीं काव्य नाटक के क्षेत्र में सीमित शब्द हैं। जबकि नाट्यदर्पपकार ने लौकिक स्त्री पुरुष आदि को भी "विभावादि' शब्दों से और उनकी रति आदि को भी "रस' शब्द से निर्दिष्ट किया है। इसलिये उन्होंने सामान्य विषयक तथा विशेष विषयक द्विविध रसों की स्थिति मानी है। इसी को स्पष्ट करते ग्रन्थकार लिखते हैं कि जहाँ (अर्थात लोक में ) वास्तविक रूप में ह. नाइपरपण, आकृति 2. क- अभिनवभारती भाग 1, पृ. 219-20 ( नगेन्द्र ) - रसस्य सुखदुःवात्मकतया तमयलक्षपत्वेन उपपद्यते, अतएव तदुभयजनकत्वम् । -रसकलिका। रूद्रभट्ट नम्बर आफ रसाज पृ. 155 हिन्दी नादयउर्पप पृ. 84 से उधत ग- रसा हि सुखदःवरूपाः श्रप्र. 2यभाग पृ. 369 हिन्दी नाट्यदर्पप पृ. 84 से उत्त
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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