________________
रति आदि स्थायीभावों के कारण, कार्य तथा सहकारिभाव पाये जाते हैं, वे ही यदि नाट्य या काव्य में प्रयुक्त होते हैं तो विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव कहलाते हैं और उन्हीं विभावादि भावों से अभिव्यक्त होने वाला रत्यादिरूप स्थायिभाव रस कहलाता है । '
जैनाचार्यों के रस - स्वरूप का उपजीव्य प्रायः भरत रस-सूत्र ही रहा है। आचार्य वाग्भट प्रथम रस की महत्ता प्रतिपादित करते अपने ग्रन्थ में लिखते हैं कि जिस प्रकार उत्तम रीति से पकाया हुआ भोजन भी नमक के बिना स्वादहीन रहता है उसी प्रकार रसहीन काव्य भी अनास्वाद्य होता है। 2 इसी क्रम में वे रस को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभाव और सात्त्विक भावों से परिपोष को प्राप्त करवाये गये स्थायिभाव को रस कहते हैं। 3
128
आचार्य हेमचन्द्र भरत रख-सूत्र व उसके व्याख्याकार आ. अभिनवगुप्त
विभाव, अनुभाव
का अनुसरण करते हुए रस को परिभाषित करते लिखते हैं कि तथा व्यभिचारिभावों से अभिव्यक्त स्थायिभाव ही "रस" कहलाता है । " वृत्ति में
-
1. काव्यप्रकाश, 4/27-28
2. साधुपाकेऽप्यनास्वार्थं भोज्यं निर्लवर्षं यथा । तथैव नीरत काव्य मिति ब्रूमो रसानिह ।। वाग्भटालंकार, 5/1
3. विभावैरनुभावैश्च साति वकैर्व्यभिचारिभिः । आरोप्यमाप उत्कर्ष स्थायी भावो रसः स्मृतः। ।
वही, पृ. 5/2 विभावानुभावव्यभिचारिभिरभिव्यक्तः स्थायी भावो रसः । काव्यानुशासन 2/1
4.