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________________ मिलती है। आचार्य मम्मट ने उसे अपने "काव्यप्रकाश" तथा आचार्य हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में परिष्कृत तथा समुचित रूप में समाहित किया है। उक्त चार आचार्यों में जहां अभिनवगुप्त द्वारा प्रस्तुत भरत रस-सूत्र की व्याख्या को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है वहीं भट्टलोल्लट की व्याख्या को हेय दृष्टि से देखा गया। पर इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि रस-सूत्र की व्याख्या तथा रस सिद्धान्त की प्रतिष्ठा का मार्ग भट्टलोल्लट ने ही खोला । भट्ट लोल्लट विभाव, अनुभाव तथा संचारिभाव के संयोग से रस की उत्पत्ति मानते हैं। इस मत को मानने वाले उनके अतिरिक्त अन्याचार्य भी हैं। 2 भरत रतं सूत्र के द्वितीय व्याख्याकार शंकुक के अनुसार सामाजिक अनुमान के द्वारा रसास्वादन करता है। 3 तृतीय व्याख्याकार है- भटटनायक । इन्होंने भावकत्व तथा भोजकत्व नामक दो नवीन व्यापारों की कल्पना की है तथा निष्पत्ति का अर्थ भुक्ति तथा संयोग का अर्थ भोज्यभोजकभाव सम्बन्ध किया है। 4 रस-सूत्र के चतुर्थ व्याख्याकार अभिनवगुप्त ने अपनी व्याख्या में सामाजिक को रसानुभूति का आश्रय स्वीकार किया है तथा रस को अलौकिक आनन्दरूप कहा है। 5 आचार्य मम्मट ने रस-स्वरूप निरूपित करते लिखा है कि लोक में जो 1. द्रष्टव्य - 127 काव्यप्रकाश, कृ. पृ. 101-12 काव्यानु, टीका, पृ. 89-103 2. काव्यानुशासन, पु, 89 3. काव्यानुशासन, पृ. 90-93 - 4. काव्यानुशासन, पृ. 96 5. काव्यानुशासन, पृ. 102
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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