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काव्य-पयोजन-विषयक विभिन्नवादों का समन्वय करते हुए अधिकतम छ: प्रकार के प्रयोजन स्वीकार किये हैं -(1) यश की प्राप्ति, (2) धनलाभ, (3) व्यवहारज्ञान, (4) अकल्याप का विनाश, (5) काव्यपाठ के साथ - साथ शीघ्र ही उच्चकोटि के आनन्द की प्राप्ति तथा कान्तासम्मित उपदेश।'
ये विभिन्न आचार्यों द्वारा मान्य काव्य - प्रयोजन कुछ कवि के लिए हैं तथा कुछ पाठक के लिए। इसके अतिरिक्त कुछ प्रयोजन ऐते भी हैं जो कवि तथा सडदय दोनों को समान रूप से हितकारी हैं। यथा मम्मट - निर्दिष्ट अकल्याप का विनाशरूप प्रयोजन। इस प्रसंग में जैनाचार्यों द्वारा मान्य काव्य - प्रयोजन निम्न प्रकार हैं --
जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने केवल यश को ही काव्य का प्रयोजन
स्वीकार किया है जो केवल कविनिष्ठ ही है जबकि अन्य समस्त आचार्यों ने प्रायः आनन्दरूप प्रयोजन को न केवल स्वीकार किया है, अपितु सर्वश्रेष्ठ तथा उभयनिष्ठ (कवि व सहृदय) भी घोषित किया है। अत:
1. काव्यं यश सेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवतरक्षतये। सधः परनिर्वतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।।
काप्यप्रकाश, 1/2 2. काव्यं कुर्वीत कीर्तय।
वाग्भटालंकार 1/3