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________________ 115 तथा आT. अभिनवगुप्त की प्रीति की व्याख्या रीतिवादी आचार्यों की व्याख्या से भिन्न है। यह तो उस विलक्षप आनन्द का नाम है जो सह्दयों के उदय की अनुमति का विषय है, अथवा रसवादी आचार्य जिते रसास्वादन या रसानुभूति कहते हैं। ध्वनिवादियों द्वारा प्रतिपादित काव्य के इस मुख्य प्रयोजन को बाद के आचार्यों ने अपना आदर्श वाक्य सा बना लिया। नवीन वक्रोक्तिवाद का उद्घाटन करते हुए भी आचार्य कुन्तक ने प्रीति को ही काव्य का महत्वपूर्ण प्रयोजन बताया जिसका अभिप्राय सहृदय का आहलाद है।' इसी प्रकार रस-तात्पर्यवादी काव्याचार्य भोज राज (10वीं ।।वीं शताब्दी) के अनुसार “की ति" और "प्रीति" ही काव्य के तात्त्विक प्रयोजन है । और "प्रीति" का अभिप्राय काव्यार्थतत्त्व की भावना से संभत "आनन्द" है जैसा कि "सरस्वतीकण्ठाभरप" के व्याख्याकार रत्नेश्वर (14वीं शताब्दी) का विश्लेषप है। आचार्य मम्म्ट ने 1. धर्मादिताधेनोपायः सकुमा रकमोदितः। काव्यबन्धोऽभिपातानां हदयाहा दका रक:।। वकोक्तिजीवित, |.4 2. कवि .... कीर्ति प्रीति च विन्दति सरस्वतीकंठाभरप, 1.2 3. प्रीति : सम्पूर्पकाव्यार्थस्वादसमुत्थ आनन्दः, काव्यार्थभावनादशायां कवेरपि सामाजिकत्वांगीकारात् स.क. रत्नदर्पप - 1.2
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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