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________________ 105 काव्यानुशासनकार आचार्य हेमचन्द्र के काव्य - हेतु तम्बन्धी विचार अपने पूर्ववर्ती आचार्यो - राजशेखर, आनन्दवर्धन और मम्म्टादि से प्रभावित हैं। प्रायः सभी आचार्यों ने काव्य के तीन हेतु - प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास माने हैं जिसमें किसी ने प्रतिभा को प्रधानता दी है तो किसी ने व्युत्पत्ति और अभ्यास को। आचार्य हेमयन्द्र ने प्रधानरूप से प्रतिभा को ही काव्य का हेतु स्वीकार किया है तथा व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को प्रतिमा का संस्कारक माना है। प्रतिभा दो प्रकार की होती है --- (1) सहजा (जन्मजाता), और (2 ) औपाधिकी ( कारपजन्य )। इनमें सावरण धयोपशम मात्र से होने वाली सहजा कहलाती है। इसी को स्पष्ट करते काव्यानुशासनकार कहते हैं - आत्मा सूर्य के १. प्रतिभात्य हेतुः । - काव्यानुशासन, 1/4 2. व्युत्पत्त्यभ्याताभ्यां संस्कार्या। वही, 1/7 3 सा च सहजौपाधिकी चेति द्विधा। काव्यानुशासन 1/4 वृत्ति 4. सावरपक्षयोपशममात्रात सहजा।। काव्यानशासन, 1/5
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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