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________________ तथा योग्य गुरु के चरणों में बैठकर निरन्तर अबाध गति से काव्यरचना हेतु जो परिश्रम किया जाता है उते "अभ्यास" कहते हैं। ' इसमें अभ्यास के प्रकारों में बतलाया गया है काव्य रचना हेतु सर्वप्रथम रमणीय सन्दर्भ का निर्माण करते हुए अर्थशून्य पदावली के द्वारा समस्त छन्दों को वश में कर लेना चाहिए। 2 आगे वे कहते हैं कि यद्यपि प्रारंभिक अभ्यास ते काव्य में नूतन अर्थों की उद्भावना नहीं हो सकती किन्तु प्रतिदिन के वाग्व्यवहार में अर्थ तत्वों के संग्रह का अभ्यास करना काव्य - रचना करने वालों के लिये आवश्यक है । 3 1. 2. अनारतं गुरूपान्ते यः काव्ये रचनादरः । तमभ्यासं विदुस्तस्य क्रमः कोऽप्यपुदिश्यते । । - • वही, 1/6 विभत्या बन्धचारुत्वं पदावल्यार्थशून्यया वशीकुर्वीत काव्याय छदांति निमित्यपि । । वही, 1/7 3. अनुल्लसन्त्यां नव्यार्थयुक्तावभिनवत्वत: । अर्थसङ्• लनातत्त्वमभ्यस्येत्सङ्कथास्वपि ।। क - वही 1/10 - 104 -
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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