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________________ वस्तुत: रस की निष्पत्ति में विभावादि के क्रम की प्रतीति झटिति (शीघ्रता से ) होने के कारण उसके क्रम का बोध नहीं हो पाता है । अत: इसे असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य कहा गया है। इसको स्पष्ट रूप ते समझने के लिए काव्यशास्त्रियों ने उत्पलप्रति पत्र भेदन्याय का सहारा लिया है। अर्थात जिस प्रकार सौ कमल पत्रों के समूह में एक साथ सुई चुभाने ते कमलपत्रों का क्रमप ही भेद होता है, किन्तु शीघ्रता के कारण पूर्वापर की प्रतीति नहीं होती है। उसी प्रकार असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य में क्रम के होने पर भी भेद की प्रतीति नहीं होती है। असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य के रसभावादि के भेद है अनन्त भेद संभव है, किन्तु आचार्यों ने अगणनीय होने से प्रायः एक ही भेद माना है। । इत सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य का यह कथन है कि रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भाव स्थिति, भावसन्धि, भावशबलता 1. काव्यप्रकाश, पृ, 162 93 अलंकारमहोदधि, पृ. 103-104 -
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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