SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 92 साध्य की सिद्धि हो जाती है। प्रोटोक्ति के अतिरिक्त स्वत: संभवी अर्थहीन है और कविप्रोटोक्ति ही कविनिबद्धवक्तपौढोक्ति है, अत: उन्हें अधिक प्रपंच अभीष्ट नहीं है।' आ. नरेन्द्रप्रभसरि ने अर्थशक्तिमलकव्यंग्य के सर्वप्रथम स्वतः सिद्ध और कवि प्रौढोक्तिसिद्ध - ये दो भेद किए हैं। पुनः प्रत्येक के वस्तु व अलंकार - ये दोरो भेद किए हैं। तत्पश्चात वस्तु के वस्तु ते वस्तु और अलंकार - ये तथा अलंकार के अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार नामक दो - दो भेद किए हैं। उनके अनुसार ये आठों भेद पद, वाक्य और प्रबन्ध में समानरूप ते पाये जाते हैं। उभयशक्तिमूलक व्यंग्य - हेमचन्द्राचार्य ने इसे शब्दशक्तिमूलकव्यंग्य ही माना है। आ. नरेन्द्रप्रभतरि ने उभयशक्तिमलकव्यंग्य का वाक्यगत एक ही भेद माना है। असंलक्ष्यकमव्यंग्य - जिस व्यंग्य के क्रम की प्रतीति न हो वह असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य कहलाता है। अर्थात असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य में वाच्यार्थ से व्यंग्यर्थ के मध्य में होने वाले समय का ज्ञान नही होता है। इसमें रता दि ही व्यंग्य होते हैं, अतः इसे रसध्वनि के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। ।. वही, 1/24 वृत्ति , पृ. 72-74 2. अलंकारमहोदधि, 3/59-60 - वही, 3/16 + वाक्य एवोभयोत्थः स्यात् ...। वहीं, 3/16
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy