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निवेदन |
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आज हमें यह पतितोद्धारक जैनधर्म प्रगट करते हुये महान् हर्ष होरहा है । एक तो इसका विषय ही रोचक, कल्याणकर एवं प्रभावना पूर्ण है, दूसरे इसके सुप्रसिद्ध विद्वान लेखक बाबू कामताप्रसादजी जैनकी लेखनी ही ऐसी प्रशस्त है कि जिससे यह ग्रन्थ सर्वप्रिय बन गया है।
इस ग्रंथ में प्रारम्भसे अन्ततक यह बतानेका प्रयत्न किया गया है कि जैन धर्म महानसे महान पतित प्राणियोंका उद्धारक है। इसमें जातिकी अपेक्षासे धर्मका बटवारा नहीं किन्तु योग्यता के आधारपर धर्म धारण करनेकी आज्ञा दी गई है। जैनधर्मका प्रत्येक सिद्धान्त, उसकी प्रत्येक कथायें और तमाम ग्रन्थ इस बातको पुकार पुकारकर कह रहे हैं कि धर्मका किसी जाति - विशेषके लिये ठेका नहीं है। चाहे कोई ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र सभी धर्म धारण करके आत्मकल्याण कर सकते हैं ।
जैनाचार्योंने स्पष्ट कहा है कि
विमक्षत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बांधवोपमाः ॥
इसके साथ ही जैनधर्म किसीको पापी या धर्मात्मा होनेका
बिल्ला सदाके लिये नहीं लगा देता, किन्तु वह स्पष्ट प्रतिपादन करता है कि: