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पतितोलारक जैनधर्म । [२१ रीमे बहिष्कृत कर दिया जाता है ! किन्तु यह प्रवृत्ति धर्ममर्यादासे मर्वथा प्रतिकूल है; क्योंकि पूर्वोक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि धर्मकी आवश्यक्ता पतितोद्धारके लिये ही है और जैनधर्म वस्तुतः पतितोद्धारक है । जैनाचार्योंने स्पष्टतः चारित्रहीन मनुष्योंके उद्धारके लिये धर्मका विधान पद पदपर किया है। उनका कहना है कि:
"महापापप्रकर्ताऽपि प्राणी श्रीजैनधर्मतः। भवेत् त्रैलोक्यसंपूज्यो धर्माकि भो परं शुभम् ॥"
अर्थात - "घोर पापको करनेवाला पाणी भी जैन धर्म धारण करनेसे त्रैलोक्य पूज्य होजाता है ! धर्मसे अधिक श्रेष्ठ और वस्तु है ही क्या ? चारित्रभ्रष्टको तो जैन धर्म सर्वथा भ्रष्ट नहीं बतलाता; क्योंकि यदि मनुष्यका श्रद्धान आत्मधर्ममें ठीक रहेगा तो वह एक दिन अवश्य अपनी गलती महसूम करके उसको सुधार लेगा। इसी लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्यजीका यह कथन सार्थक है:
'दंसणभट्टा भट्टा, देसणभट्टस्स णस्थि णिव्याणं । सिझति चरियभट्टा, सणमट्ठा ण सिजति ॥३॥
अर्थात्-“ दर्शन-सम्यक्त्वसे भ्रष्ट ही भ्रष्ट हैं । दर्शन प्राके लिये निर्वाण नहीं है । चारित्र अष्ट सीझेंगे-सिद्ध होंगे ! दर्शनभ्रष्ट नहीं सीझेंगे-सिद्ध नहीं होंगे।"
जैनाचार्योने एक सम्यक्त्वीका यह कर्तव्य ही निर्धारित किया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने पदसे भ्रष्ट हुआ हो तो उसे पुनः उस पद पर स्थापित करे । 'पंचाध्यायी' में यही कहा गया है:
'सुस्थितीकरण नाम परेषां सदनुमहात् । भ्रष्टानां स्वपदाचत्र स्थापनं तत्पदे पुनः ८.३॥