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पतितोद्धारक जैनधर्म 1
जातिमद तो संसार और नीच गोत्रका कारण है।' 'ठाणांग सूत्र ' में लिखा है कि:
'न तस्स जाई व कुलं व ताणं, गण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिनं । णिक्खम्म से सेवइ गारिकम्पं, ण से पारए होइ विमोयणा ॥ ११॥
अर्थात् - 'सम्यग्ज्ञान और चारित्र विना अन्य कोई जाति व कुल शरणभूत नहीं है। जो कोई चारित्र अंगीकार करके जाति गोत्रादिकका मद करता है वह संसारका पारगामी नहीं होता है ।' क्योंकि सिद्धिपद जाति और गोत्र रहित महान् उच्चपद है। (उच्चं अगोत्तं च गर्ति उवेंति) इमलिये लोक में कल्पित उच्च जाति या कुलका फालेना मनुष्यके लिये शरण नहीं है।" शरण तो एक मात्र आत्मधर्म है ।
अधिकांशतया जनतामें यह भ्रम फैला हुआ है कि जो मनुष्य सन्मार्गसे अधिक दूर भटककर भ्रष्ट होता है चारित्रभ्रष्टका उद्धार अथवा जो व्यक्ति पूर्व संचित अशुभोदय से संभव है । अपने मर्यादित पदमे पतित होजाता है, वह धर्म पालने का अधिकारी नहीं रहता है 1 ऐसा चारित्रभ्रष्ट और समाज नियमोंको उल्लंघन करनेवाला मनुष्य जैन संघमें रखने योग्य नहीं माना जाता और उसे संघ या बिराद
१ - " जातिमदेण कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सणिमदेणं णीयगोयकम्मासरीर जावप्पयोग बँधे " - भगवती सूत्र (हैदराबादका छपा ) पृष्ठ १२०६ ।
२- खलु गातिसंजोगा जो ताजाए वा णो सरणाए वा । "
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--ठाण!ङ्गसूत्र