SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ GRADUNIASIMHRUIT HOURNALIHIROIDurauDISUSIL MAHARI चिलाती पुत्र । । १३९ चोरोंने देखा कि उनका अड्डा राजकर्मचारियोंका शिकार बना है तो वे सब इधर उधर भाग खड़े हुए । चिलातीपुत्र भी सुखमाको लेकर गहन वनको भागा। सेठने अपने पुत्रों सहित उसका पीछा किया। चिलातीपुत्र यद्यपि हट्टा-कट्टा और एक दासपुत्र था, पर था वह भी मनुष्य ही । आखिर उसकी शारीरिक शक्ति जवाब देने लगी और सेठ उसका पीछा कर ही रहे थे। उस दुष्टने आव गिना न ताव, झटसे सुखमाका सिर काटकर ले लिया और उसका शब वहीं फेंक दिया ! सिरको लिये वह पहाड़ी परको चढ़ता चला गया । सेठ धनवाहने सुखमाका शब देखकर उसका पीछा करना छोड़ दिया। उनके मुंहसे 'हाय' के सिवा कुछ न निकला । उन्हें काठ मार गया-वे वहीं बैठ गये ! शोक ज़रा कम होनेपर सेठने शबको लेकर राजगृहकी ओर लौटनेकी ठानी। वह थोड़ी दूर चले भी; परन्तु रास्ता कहीं ढूंढ़े नहीं मिलता था। वह रोते-रोते बैठ गये । भूखे प्यासे शोकाकुलित एक वृक्ष तले पड़ रहे । आखिर भूखने उन्हें ऐसा सताया कि वह बेहाल होगये । खानेको एक कण भी उनके पास न था। बेचारे सेठ बड़े संकट में पड़े । सुधबुध उनकी जाती रही। भूखने उन्हें नर-राक्षस बना दिया। अपने प्राणों के मोहमें वह बेटीका शोक भूलगये । बेटीका निर्जीव शब उनके सामने था और भूख भी मुंह बाये खड़ी थी। सेठने उस शबका भक्षण करके पेटकी ज्वाला शांत की! और ज्यो-त्यों करके वह राजगृह पहुंचे ! प्राणोंका मोह महाविकट है।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy