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________________ ISROHIHITHUSIC IDEOHDIPADDINITISH011B10 Manatalimensation-in १३८ ] पतितोद्धारक जैनधर्म। यहां उसको कुछ काम नहीं करना पड़ता था। उनकी पुत्री सुखमाको वह खिलाता भर रहता था। आखिर वह बेकार आवारह घूमने लगा। राजगृहके बाहर सिंहगुफाके पास चोरोंकी पल्ली थी। चिलातीपुत्र उन चोरोंमें जा मिला। और कालान्तरमें वही उनका सरदार होगया। चिलातीपुत्र अब डाके डालता और चोरी करता हुआ जीवन विता रहा था। फिर भी वह सुखी नहीं था। उसका मन रह-रह कर सेठ धनवाहके घरकी दौड़ लगाता था । वात यह थी कि वह अपनी सखा सुखमाको भूला नहीं था। वह सोचता, अब सुखमा मेरीसी जवान होगई होगी। उसके साथ आनन्द केली करूं तो कैसा अच्छा हो। एक रोज उसने अपने इस विचारको कार्यमें पलट दिया। ___राजगृहमें सब सोरहे थे । हा, चौकीदार यहां-वहा अवश्य दिखाई पड़ते थे । चिलातीपुत्रको उनकी जरा भी परवाह नहीं थी। वह अपने साथियोंके साथ दनदनाता हुआ सेठ धनवाहके घरमें जा घुसा । सेठने जब यह जाना कि डाकुओंने घर घेर लिया है तो वह प्राण लेकर भागा। इस भगदड़में सुखमा पीछे रह गई। चिलातीपुत्रने झट उसे उठा लिया और धन लटकर वे सब सिंहगुफाकी ओर भाग गये। सेठ धनवाहने देखा कि मुखमा नहीं है तो वह विकल-शरीर होगये ! कोतवालको उन्होंने बहुत्सा धन दिया और उसके साथ वे अपने लड़कोंको लेकर चोरपल्लीकी भोर मुखमाकी खोजने गए।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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