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________________ माली सोमदव और अंजनचोर । Shaniaziding10 [ ९१ सोमदत्तने अपनी शंका उनपर प्रगट करदी; जिसे सुनकर सेठजी खिलखिलाकर हंस पड़े और बोले- बस, "इस जरासी बात के लिए इतना तूमाल !' किन्तु इस जगसी बात में मालीकी हृदगत धार्मि कता ओतप्रोत भी । वह उसे एक पुण्यात्मा प्रगट करनेके लिये प्रर्याप्त थी। सेठजीने भी उसकी धार्मिकताको देखा और वे प्रसन्न हो कहने लगे- 'प्रिय सोमदत्त, मैं धर्मवेलामें धर्माराधना ही करता हूं । विमानमें बैठकर तीर्थोंकी वन्दना करने जाता हूं, यह मेरा नित्य नियम है ।" धर्मवत्सल सोमदत्त यह सुनकर पुलकितगात्र होगया और बोला - " मालिक, मुझपर भी मिहर होजाय ! आपकी जरीसी दयासे मेरा बेडा पार होजायगा !" सेठ जो दृढ़ सम्यक्ती थे, वह चटसे बोले- हां हां, सोमदत्त तुमने यह बड़ा अच्छा विचारा। जिनेन्द्र की पूजा भव-भवमें सुखदाई होती है। तुम तो मनुष्य हो, जिन पूजा करके महत् पुण्य संचय कर सक्ते हो । जानते हो, इसी राजगृहमें एक मेंढक था जो जिनेन्द्र पूजाके मावसे एक फूल लेकर तीर्थंकर महावीर के पासको चला था, परन्तु बेचारा रास्ते में हाथी के पैर तले आकर मरा और पूजाके पुण्यमई भावसे फलस्वरूप देवता हुआ। आओ, मैं तुम्हें विमान बनानकी विद्या बतादूं, तुम उसे साध कर जिन पूजा करो। तुम माली हो तो क्या ! तुम्हारा हृदय पवित्र है !" खूब तीर्थ वंदना और सोमदत्तने सेठजीसे विमान विद्याकी विधि जान ली। अब वह उस विद्याकी सिद्धिमें लगगया ।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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