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छठा जन्म
६५ यदि कोई विपय का लोलुप केवल ऐश्वर्य के लिए तपस्या आदि अनुष्ठान करता है, तो भले ही उसे ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाय पर असली फल-छात्म शुद्धि उससे दूर ही रहती है । जैसे विवेकशील जौहरी अपने अनमोल रत्न को कौड़ी के बदले नही लुटा देता। उसी प्रकार विवेकनिष्ठ धर्मात्मा अपने सदनष्ठान रूपी लोकोत्तर रत्न को काड़ी के समान ऐहलौकिक सुख के लिये नही लटा सकता।
जिसे अभ्रान्त वष्टि-सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो चकी है। उसका लक्ष्य विषयभोगों से बचकर मुक्ति की प्राप्ति करना बन जाता है। वह संसार में रहते हुए भी जल मे कमल के समान अलिप्त प्रागद्व रहता है । इन्द्रियों के विषय उसे काले नाग के समान विषैले जान पड़ते है। अतएव सम्यग्दृष्टि जीव न उन्हें अपना लक्ष्य बनाता है, न उनके प्रति अनुराग ही रखता है। फिर अपनी बहुमूल्य क्रियाओं को वह इन ओछे दामो पर कैसे बेच सकता है ? जो इस प्रकार का व्यापार करने को उद्यत है, समझना चाहिए कि अभी तक उसका लक्ष्य शुद्ध नही हुआ है। उसे दृष्टि की विमलता प्राप्त नहीं हुई है। इसीलिए निदान शल्य का परित्याग करना व्रता जनो के लिए अनिवार्य माना गया है। निदान अपने शुभ अनुष्ठानों को मलिन बनाता है और साथ ही आत्मा मे भी वह मलिनता उत्पन्न करता है। अतएव सम्यग्दृष्टि जीवो का यह आवश्यक कर्तव्य है, कि वे अपने किये हुए धर्म-कार्यों के फल की कदापि आकॉक्षा न करे। निष्काम भाव से सेवित धर्म और कृत-कर्म ही पर्ण फल प्रदान करता है। आकांक्षा का विप उस फल को विपाक्त वना डालता है।
संमार के टु खो से ऊब कर ही व्रत नियमादि धारण किये