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पार्श्वनाथ
तर्क की कसौटी पर कसने का प्रयत्न किया जाय, तो निष्फलता ही प्राप्त होगी । यही नहीं वरन् हम उस गूढ़ किन्तु वास्तविक तत्व के सम्यग्ज्ञान से भा वंचित रह जाएँगे । मगर ऐसे तत्वों पर जो श्रद्धा की जाय, वह उसके प्ररूपक की परीक्षा करके की जानी चाहिये । वक्ता या प्ररूपक की परीक्षा किये बिना ही जो यद्वा तद्वा श्रद्धा कर ली जाती है, वह विवेक शून्य अंधविश्वास है किन्तु वक्ता की वीतरागता, सर्वज्ञता आदि गुणों की परीक्षा कर के यदि श्रद्धा को स्थान दिया जाय, तो वह श्रद्धा अभ्रान्त और विवेक पूर्ण होगी। सम्यग्दर्शन इसी प्रकार की विवेक युक्त श्रद्धा है - अंधविश्वास नही । जो तर्क की कर्कश कसौटी पर कसा जा कर सत्य सिद्ध होता है, जिसका प्रणेता पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण वीतराग है, वह तत्व कदापि मिथ्या नहीं हो सकता । उस पर अखड विश्वास रखना और शारीरिक या मानसिक कायरता आदि के कारण उससे च्यूत न होना नि.शक्ति अग है ।
सम्यक्त्व का दूसरा अंग नि. काक्षितता है । काक्षा का यहाँ अर्थ है-सत्कार्यों के फल की इच्छा करना । मै अमुक धर्म - कृत्य करता हू, उसके फल स्वरूप मुझे अमुक वस्तु प्राप्त हो जाय । मै तपस्या करता हॅू, इस तपस्या से मुझे स्वर्ग के भोगोपभोग मिलें, सामायिक या प्रतिक्रमण के बदले व्यापार मे नफा हो या पुत्र प्राप्ति हो । इत्यादि आकाक्षा धर्मकृत्य के महान फल को तुच्छ और विकृत बना देती है । जैसे किसान धान्य के लिये खेती करता है। भूसा उसे आनुषंगिक रूप से मिल जाता है । उसी प्रका ' मुमुक्षु जीव केवल आत्म शुद्धि के लिए, इह - परलोक संबंधी सुखो की कामना न करता हुआ धर्म की आराधना करता है । पर देवलोक का ऐश्वर्यं आनुपगिक रूप से प्राप्त हो जाता है ।