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पार्श्वनाथ
जाते है। किन्तु उन व्रत, नियम, तप, जप आदि के फल स्वरूप भोगोपभोगों की सामग्री की पुन: इच्छा करके दुखों को आमंत्रण देना, कितने खेद और आश्चर्य की बात है ? विपयभोगों के जाल मे फंसकर ही तो आत्मा को जन्म-मरण की तंग घाटी मे से गुजरते हुए अनादि काल हो गया है। अब सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर तो पर्ण सावधानी की आवश्यकता है। भोगोपभोग विपाक्त पकवानो के समान है। वे क्षण-भर सुख का आभास कराते है,और दीर्घकाल तक घोर दु ख देते है। इन टु खोसे रक्षा करने के लिए ही तो सम्यक्-बारित्र रूपी कवच धारण किया जाता है। इस कवच को धारण करके यदि भोगाकाज्ञा रूपी अग्नि मे कूदने के लिए कोई तैयार हो, तो उसकी रना कैसे हो सकती है ? धूलि-धूसरित हाथी ने स्नान किया और स्नान करने के पश्चात् तत्काल ही फिर अपने सारे शरीर पर धूल विखेर ली। ऐसी अवस्था मे वह हाथी कैसे स्वच्छ रह सकता है ? जिस वस्तु के सेवन से रोग की उत्पत्ति और वृद्धि होती है । उसी का सेवन कर के रोग का विनाश करने की इच्छा करना, उन्मत्त-चेष्टा ही कही जा सकती है। यही वात चारित्र के फल की इच्छा करने के सबंर मे कही जा सकती है। . स्वार्थलिप्सा और कीर्तिकामना यह दोनों आकाक्षा के प्रधान अग है। आज अधिकाश जनसमूह इन्हीं अगों के वशवर्ती हो कर दान-पुण्य की प्रवृत्ति करते हैं। स्वार्थ से प्रेरित होकर वे कहते है-भाई, लो तुम्हे यह रुपये-पैसे देता हूँ। समय पड़ने पर इसके बदले तुम हमारा अमुक-अमुक काम कर देना । कई लोग कीर्ति के कीचड़ मे फैलकर अपने दान के प्रभाव को कलंकित करते हैं। वे जहां और जिस प्रकार अधिक से अधिक कीर्ति