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दूसरा जन्म से परिमार्जित करके चलते हैं । इस प्रकार करने से जो चिउँटी आदि जीव-जन्तु उस भूमि पर होते है वे इस ऊनी रजोहरण के कोमल स्पर्श से विना कष्ट पाये एक ओर हो जाते हैं। पैर के नीचे आकर उनके मरने की संभावना नहीं रहती।
सार्थवाह-महाराज! आप देव किसे मानते हैं ?
मुनिराज-जिस महापुरुष में दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्यान्तराय, हास्य, रति, अरति, जुगप्सा, भय, शोक, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान, अवत, राग और द्वेष ये अठारह दोष विद्यमान न हों, जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी, वीतराग और अनन्त शक्ति संपन्न हों वही हमारे अभिमत देव हैं। ऐसे देव त्रिलोकपूज्य होते है । सुर, नर, ऋपि और मुनिगण सभी उस देव की एक स्वर से महिमा गा रहे है। ऐसे सच्चे देव की उपासना भाग्योदय से ही प्राप्त होती है। हम उसी निरंजन भगवान् की सदैव उपासना करते हैं। जो अद्र जीव ऐसे देव के शरण को ग्रहण करते हैं वे निकट भविष्य मे ही जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाते हैं हां, यदि कोई मलिन भावों से या किसी दुर्वासना की पूर्ति के उद्देश्य से उपासना करे तो वह पाप का ही उपार्जन करता है। प्रतिष्ठानपुर के नंद और भद्रक इस कथन के प्रमाण है। उनकी कथा, इस प्रकार है:. प्रतिष्ठानपुर मे नन्द और भद्रक नामक दो वणिक पुत्र रहते थे। दोनो सहोदर भ्राता थे। पर उनकी प्रकृति विलकुल भिन्न थी। दोनों की दुकाने अलग-अलग थीं। भद्रक प्रातःकाल होते ही दुकान पर जा बैठता था। वह न कभी माला फेरता, न गुरुदशन करता । नन्द इससे सर्वथा विपरीत प्रतिदिन गरुदर्शन करता, सामायिक करता और तब दुकान खोलता था। इस प्रकार -