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पार्श्वनाथ
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की प्राप्ति हुई । मन पर्यय ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से उन्हें मन पर्याय ज्ञान भी उत्पन्न हो गया । मुनिराज एक वार विहार कर रहे थे कि मार्ग से सागरदत्त नामक एक सार्थवाह से उचकी भेट हो गई । सार्थवाह ने पूछा - 'भगवन् | आपने यह कपडा मुँह पर क्यों बांध रखा है ? उन्होंने कहा- 'भद्र, यह मुख पर का वस्त्र जैन साधुओं के आदर्श त्याग का द्योतक है। इस वत्र से ही पहचाना जाता है कि यह जैन साधु है । इसे मुखवखिका कहते है । मुखलिका शास्त्र के पठन-पाठन के समय थूक द्वारा शास्त्रो को पवित्र होने से चाती है अर्थात् उसके मुँह पर बंधे रहने से शास्त्रों पर थूक नहीं गिरता । और खास कर भाषा के पुद्गलों से हवा के टकराने पर जो जीव हिंसा होती है वह इस मुँहगति के द्वारा बच जाती है । मार्थदाह - महाराज, मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या हवा नाक के द्वारा नहीं निकलती है ?
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मुनिराज – मैने यह कब कहा कि प्राकृतिक सचित्त हवा से जीवहिमा होती है ? जीवहिंसा तो तब होती है जब प्राकृतिक सचित्त हवा से कृत्रिम अचित्त हवा का संघर्ष होता है । तात्पर्य यह है कि भाषण करते समय भाषा के पुद्गलों से जो चित्त वायु उत्पन्न होकर सचित्त वायु से टकराती है तब सूक्ष्म जीव मरते है और इसलिए मुँहपत्ती बाधी जाती है ।
सार्ववाह - अच्छा महाराज, यह एक गुच्छा सा किस लिए
है ?
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सुनिराज - भाई, सूर्य के प्रकाश में तो देख भाल कर चलने से जीवहिंसा से बचा जा सकता है, मगर रात्रि में जब थोड़ाचलने फिरने का काम पडता है. तो भूमि को इस रजोहरण