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पार्श्वनाथ
दोनों की प्रगति भिन्न-भिन्न थी। पर भद्रक यद्यपि दुकान प्रात:काल खोल लेना या जिन्तु अपने आपने धर्मध्यान न कर सकने के कारण मन ही मन सदा सता रहता और कहता-धन्य है सेरा तपभ्राता नन्न, जो प्रातःकाल गरदर्शन करता है, सामा. यिक ऋता है । एक ने पापी हूं जिससे तनिक भी धर्मक्रिया नहीं बन पड़ती ! सानाथिक तो दूर रही मैं तो गुदर्शन भी नहीं क्रताई। हाग.न जाने सविष्य में नरी सी दुर्गति होगी। इस प्रबल तणा ने मुझे ना अपने जाल ने पास लिया है ! मदन इस प्रकार शुभ भावना द्वारा सदैव पुख्य म उपार्जन कर लेता था! वर नन्द गरदर्शन करता था, सामायिक भी करता था. पर उसके भावों में निर्मलता न होती थी। वह सोचता रहता देलो, मेरे लेख भ्राता कितने शीन दुान खोल लेते है। अवश्य ही वे अधिन माल बेचते होंगे और अधिक धनोपार्जन भी करने होंगे। मैं ऐसा पागत हूँ कि काय के समय व्यर्थ ही इधर भाकर नाथापची ऋता हूँ। मगर नल क्या, एक दिन भी नागा ब्रता हूँ तो गुरुजी आलत नचा देते हैं, लोकनिन्दा होती है और अब तक जो प्रतिष्ठा मेन ना रखी है उससे घना लगता है। इसके अतिरिक्त मूर्खतावश मैन प्रतिदिन सामायिक करने की प्रतिज्ञा भी लेली है। मेरी पत्नी को भी, इन गर नहाराज ने नुलावे में बात रखा है। में सामायिक न कहें तो वह भी सौंठ न कर बैठी रहती है बात भी नहीं करती। पर इसी प्रकार चलता रहता तो भद्रक शीघ्र ही घनाध्य हो जायगा
और मैं यों ही रह जाउँगा। इस प्रकार के अशुद्ध अध्यवसाय के कारण कसे यन्तर आसावंव हुया ! भद्रक यद्यपि इन्य क्रिया न करता या नथापि भावों की निर्मलता के कारण वह