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समवसरणे
२१५ __ समवसरण में मनुष्य, तिर्यञ्च और देव सभी के लिए पथक्पथक स्थान नियत थे । सब यथास्थान बैठ गये। सब की दृष्टि भगवान् के मुख कमल पर गडी हुई थी। दिव्य प्रभाव के कारण चारों ओर बैठे हुए दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था जैसे भगवान् का मुख उन्ही की ओर हो। साध साध्वियां और वैमानिक देवियां अग्निकोण मे बैठे थे। भवनपति वाणव्यन्तर
और ज्योतिपी देवों की देवियां नैरूत्य कोण मे तिर्यची और तीनो प्रकार के देव वायव्य कोण में बैठे थे। वैमानिकदेव, मनुष्य, तिथंच और स्त्रियां ईशान कोण में थे। इस प्रकार बारह प्रकार की परिषद् समवसरण में उपस्थित थी। __ भगवान के समवसरण में सब मनुष्यो को स्थान दिया गया था और वह स्थान भी अलग-अलग नही बल्कि सब को एक ही था। ब्राह्मण आदिको को शूद्रों से पृथक स्थान नही मिला था । वास्तविक बात यह है कि स्पृश्य-अस्पृश्य की कल्पना धर्म के क्षेत्र मे नही है। किसी समय यह कल्पना व्यावहारिक क्षेत्र में उत्पन्न होगई और वह धीरे-धीरे बढ़ती गई है। इस कल्पना का आधार जो लोग धर्म वतलाते है वे धर्म के वास्तविक रूप को समझते नहीं है । अस्पृश्यता एक भाव ही कहा जा सकता और जितने भाव होते है वे सब कर्मों के उदय, उपशम, क्षय या न्योपशम से होते है या पारिणामिक होते है। अस्पृश्यता यदि वास्तव मे मानी जाय तो वह किस भाव मे अन्तर्गत होगी ? आगम के अनुसार भायो की सख्या नियत है
और उसमे अस्पृश्यता का समावेश नहीं हो सकता। कोई भी कर्म जैनागम म ऐमा नहीं है, जिसके उदय से जीव अस्पृश्य उन जाना हो । प्रस्तावना प्रोदयिक साव नहीं है।