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पार्श्वनाथ
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प्रश्न - नीच गोत्र के उदय से जीव अस्पश्य होता है, अतः अस्पश्यता दयिक भावों के अन्तर्गत क्यों न मानी जाय ? उत्तर--नीच गोत्र का ठीक-ठीक स्वरूप समझ लेने पर यह प्रश्न नही हो सकता । नीच गोत्र लोक मे अप्रतिष्ठित कुलों मे जन्म का कारण होता है, न कि अस्पश्यता का । यदि नीच गोत्र को अस्पृश्यता का कारण माना जाय तो जिन-जिन के नीच गोत्र का उदय हो उन सबको अस्पश्य मानना चाहिए। समस्त पशुओ के नीच गोत्र का उदय होता है तो गाय, बैल, घोड़ा, भैस आदि सब पशु अस्पृश्य होने चाहिए | पर उन्हें अस्पृश्य नहीं माना जाता । वड़े-वडे, शौच-धर्म-धारी पशुओं का दूध पीते है, घोड़े पर सवारी करते हैं, यहां तक कि गाय की पूजा भी की जाती भी की जाती है। तत्र फिर अस्पृश्यता मनुष्यों तक ही क्यो परिमित है ? अस्पृश्यता इसी प्रकार किसी कर्म के उपशम, क्षय या दक्षयोपशम से भी नहीं उत्पन्न होती । पारिणामिक भाव सब नित्य होते है | अस्पृश्यता को पारिणामिक भाव के अन्तर्गत मानी जाय तो वह भी नित्य होगी । पर वह नित्य नही है । एक अस्पृश्य गिना जाने वाला चांडाल उत्तर जन्म में ब्राह्मण बन कर स्पृश्य हो जाता है और स्पृश्य ब्राह्मण चांडाल होकर अस्पृश्य कहलाने लगता है । इस कथन से यह भली भाति स्पष्ट हो जाता है, कि वर्स में जातिगत भेद को कोई स्थान नहीं है । अनेक महात्मा चाडाल जाति से भी हुए है । वे उसी प्रकार बन्दनीय है जैसे अन्य जातीय महात्मा । जाति का अहंकार करना सम्यक्त्व का एक मत है । जिसमें जाति संबधी अभिमान होता है उसका सम्यक्त्व कलंकित हो जाता है । भगवान् नीर्थंकर त्रिलोकाता और विश्वोपकारी है । उनकी धर्मोपदेश