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________________ वारह भावना है। नरक में शूल, कुल्हाड़ी, घानी, अग्नि, क्षार, छुरा, कटारी आदि-आदि नाना प्रकार के घोर व्यथा पहुँचाने वाले साधनों से निरन्तर दुःख सहन करने पड़ते है। तिर्यश्च गति के दुःख प्रत्यक्ष हैं। मनध्य गति में नाना प्रकार के शोक, संताप, आधि, व्याधि घरे रहती है और मत्य सदा सिर पर मंडराती रहती है। देवगति भी अनित्य है। वहाँ से चल कर फिर घोर मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। समस्त संसार मानो एक बड़ी भारी भट्टी है। उसमे प्राणी जल-भुन रहे है । जैसे उबलते हुए अदहन में चावल इधर-उधर भागते फिरते है-कही भी उन्हे शान्ति प्राप्त नहीं होती इसी प्रकार जल मे, थल मे, आकाश मे इस जीव को कही विश्राम नही, शान्ति नहीं, साता नहीं । फिर भी अज्ञानी जीव संसार में रचे-पचे है। संसार से मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करते। इस प्रकार सर्वथा असार, दुःखो के सागर तथा भयानक ससार मे विचार करने पर क्या कही भी सुख प्रतीत होता है ? नही। (५) अत्यत्व भावना जीव जब मरता है तब शरीर यही छोड़ जाता है, जब जन्मता है तो पुराना शरीर साथ नही लाता। यह सब जानते है फिर भी आश्चर्य है कि मोही जीव आत्मा और शरीर को एकमेक समझ रहा है। आत्मा चिदानन्दमय है, उपयोग-स्वभाव वाला है। शरीर जड़ है, सड़ने-गलने वाला, अपवित्र और मूर्तिक है। दोनो एक कैसे हो सकते है ? अनादिकालीन कर्सबंध के कारण उपि
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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