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________________ पार्श्वनाथ दोनो । सयोग हो रहा है फिर भी स्वरूप से दोनो निराले है। दोनो का भेद जन्म और मृत्यु के समय स्पष्ट मालूम हो जाता है वास्तव मे जड और चेतन का क्या सबंध ! जब आत्मा शरीर से ही भिन्न है तो सगे-सबंधियो स. धनसम्पत्ति से तथा भोगोपभोग के साधनो से अभिन्न कैसे हो सकता है ? मोहीजीव जगन के चेतन-अचेतन पदाथा को अपना मानकर ही अबतक ससार मे भटकता फिरता है । जिस दिन आत्मा के अतिरिक्त समन विश्व की वस्तुओं का अन्य स्पस श्रद्धान होगा । उसी दिन सर्वोत्तम मगल-मागे प्राप्त होगा। हे जीव, निश्चय से समझ ले कि ससार में एक भी वस्तु _आत्मा से अभिन्न नहीं है। स्त्री. पुत्र, पिता आदि सब अपने अपन उपार्जित कर्मो के अनमार उत्पन्न हुए है और पेड़ पर पनियो के समान अकस्मान उनके साथ तेरा सयोग हो रहा है शव ही वह नत्र प्रभात आ रहा है जब सब अपने-अपने नये ठिकाने खोजते फ्रेिंगे। इस समय कोई किसी का न होगा। ससार मे त ही तरा है, जो तुमसे भिन्न है उस लाख चेष्टा कर के भी तू अपना नहीं बना सकता। अतएव पुत्र, मित्र, कलत्र को सासारिक वस्तुओं और वैभवों को तृ प्रतिक्षण आत्मा से भिन्न विचार किया कर। इस प्रकार चिन्तन करना अन्यत्व भावना है। (६) अशुचि भावना जिस शरीर की उन्दरता पर लोग इतराते है, जिसका अभिमान करते है और जिसे सजाने के लिए अनेक पापमय सामग्री
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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