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अनुवाद
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१३९ किसकी समाधि करूँ ? किसे पूजूँ ? स्पृश्य-अस्पृश्य कहकर किसे छोड़ दूँ ? भला, किस के साथ कलह ठानूँ ? जहाँ जहाँ देखता हूँ तहाँ तहाँ अपनी ही आत्मा तो दिखाई देती है ।
१४० यदि मन में क्रोध कर के कलह करना है तो निरञ्जन अभिषेक करना चाहिये। जहां जहां देखा वहां कोई नही मिला । न मैं किसी का हूं, न मेरा कोई है | ( अर्थात् यदि मन में राग-द्वेव की भावनाएं उठे तो उन्हें ठण्डी करना चाहिये और यह भावना दृढ करना चाहिये कि सच्चा आत्मा का संबन्ध आत्मा से ही है, अन्य किसी वस्तु से नही ) ।
१४९ हे जिनवर ! तब तक तुझे नमस्कार किया जब तक अपनी देह के भीतर ही तुझे न जाना । यदि देह के भीतर ही तुझे जान लिया तब फिर कौन किसको नमन करे ?
१४२ शुभ और अशुभ उत्पन्न करने वाले कर्म न करते हुए भी संकल्प और विकल्प तब तक रहते हैं जब तक हृदय मैं आत्मस्वरूप की सिद्धि स्फुरायमान न होजावे ।
* १४३ हठीला हठीला, लोग कहते हैं । हे हठी, क्षोभ मत कर हूँ मोह को उपाड़ कर सिद्धिमहापुरी में प्रवेश कर । ( अर्थात् लोगों के बुरा भला कहने से बुरा न मान कर मोह जीतना चाहिये, इसी में कल्याण है ) ।