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अनुवाद ११८ यद्यपि मैं रोकता हूं तो भी वह पर ही पर जाता है,
मन को आत्मा में धारण नहीं करता। विपयों के
कारण जीय नरका के दुख सहता है। १२९ हे जीव ! अपने से ऐसा मत जान कि ये विषय मेरे
होवेंगे। ऐसे फल क्यों पकाता है जिससे वे तुझे दुख
पहुँचायें। १२० हे जीव ! तूं विपयों का सेवन करता है किन्तु वे दुख
के साधक हैं। इसीलिये तू बहुत जलता है, जैसे घृत
से अग्नि प्रज्वलित होती है। १२१ जिसने अशरीरी (सिद्धात्मा) का सन्धान किया वही
सच्चा धनुर्धारी है। जो शिव की तत्परता में संलग्न है वह निश्चिन्त रहता है। (अर्थात् अपने आत्मा को लक्ष्य बनाकर उसी में तल्लीन रहना ही सच्चा कौशल
हे सखी! भला उस दर्पण का क्या करना जहां अपना प्रतिविच न दिखे ? मुझे यह जगत् लज्जावान् भासता
है। घर में रहते हुए भी गृहपति का दर्शन नहीं होता। १२३ जिसका जीते जी पंचेन्द्रियों सहित मन मर गया उस
को मुक्त जानना चाहिये। उसने निर्वाण-पथ को पा
लिया। १२४ वहुत से अक्षरों का क्या करना जो कुछ समय में
क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। जिससे मुनि अनक्षर (अक्षय) हो जाये उसे, हे मूर्ख ! मोक्ष कहते हैं।