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पाहुड - दाहा
अब दोहा नं. २१५ पर विचार कीजिये । प्रथम तो इस दोहे का पाठ ही यहां शुद्ध नही मिला। इससे अर्थ ही • वराबर नही बैठता । किन्तु इतना निश्चित है कि यहां कोई लोगों के यहां भोजन करने का निषेध किया गया है। पर कौन लोगों के यहां इस का कुछ ठीक पता ही नहीं चलता । पूर्वापर प्रसंग में उसका कुछ अर्थ ही नहीं बैठता । जिस रूप में वह दोहा है उसमें व्याकरण के दोष भी हैं। यही दोहा सावयधम्म में नं. ३० पर बहुत उपयुक्त और प्रसंगोपयोगी है । ऊपर के ही दोहे में बताया गया है कि मद्यमांस-भोजियों के संसर्ग से श्रद्धान में दोष उत्पन्न होता है । फिर प्रस्तुत दोहे में कहा गया है कि उनके घर में भोजन करना तो रहने ही दो, शिष्ट पुरुषों को उनसे बात भी नही करना चाहिये क्योंकि इससे सम्यक्त्व मलिन होता है । वही प्रसंग आगे के दोहे में चालू है और कहा गया है कि ऐसे गृहस्थों के वर्तन भांडे उपयोग में लाना भी अच्छा नहीं, इत्यादि ।
अच्छउ ' का महावरा सावयधम्मकार की विशेषता है । आगे ३१ वें ही दोहे में वह फिर आया है, फिर १५० वे दोहे में भी आया है । किन्तु प्रस्तुत ग्रंथ में उसका ऐसा उपयोग अन्य कहीं नही है | अतः अनुमान होता है कि यह दोहा भी हमारे ग्रंथ में आगन्तुक है और सावयधम्म का वह मूल, आवश्यक अंग है ।
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अग कुछ दृढतापूर्वक कह सकते हैं कि ये दोहे पाइदोहाकौर ने सावयधम्मदोहा में से लिये है । उपलब्ध