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पाहुड - दोहा
है कि विषयलोलुपी व्यक्तियों को लक्ष्य करके दोहा लिखा गया है । भाव ऐसा कुछ प्रतीत होता है कि हे विषयी जीव, नत्र तक यह शरीर शिथिल नही हुआ तब तक के ही यह तेरे स्पर्श और जिह्वा इन्द्रियों के सुख हैं, जिस प्रकार कि सीप ( शुक्ति ) का सुख तभी तक हैं जब तक वह छूटी नहीं हैं ।
१५८-९ यह शिवपूजन में वेलपत्री चढानेवालों को लक्ष्य करके कहा गया है । बेलपत्रादि हरित वस्तुओं में भी चैतन्य आत्मा का वास है । उनके चढाने से मोक्ष नहीं मिलता । मोक्ष का मार्ग तो एक आत्मध्यान है ।
१६०. यह शिवपूजन के लिये पत्ती तोडनेवालों को हात्यरूप में कहा गया है कि यदि शिवदेव को पत्तो प्रिय हैं तो उन्हें ही वृक्ष पर क्यों न चढा दिया जाय जिससे वे मनमानी पत्ती खा सकें ?
१६४. यहां दो'न' का भाव प्रकृत्यर्थ सूचक नहीं है |
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१६५. यहां ' एक्कु ' से तात्पर्य जीव, आत्मा या चैतन्य से और 'अज्यु' का अजीव, अचेतन, जड पदार्थों से है । दूसरी पंक्ति में 'तामु ' का सम्वन्ध आत्मा से है । इस आत्मा का ज्ञान केवल स्वानुभव से ही हो सकता है, पूछा पूछो या लिखने पढ़ने आदि ते नहीं । इस नाव का कठोपनिषद् के निन्न पद्य से मिलान कीजिये -