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टिप्पणी
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का भी नाश कर देता है और नये कोई कर्मबन्ध नहीं करता । इस प्रकार वह मोक्ष का अधिकारी हो जाता है ।
१३७. इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ अस्पष्ट है । अनुवाद के अनुसार दोहे का भाव यह है । कोई संसार के गमनागमन अर्थात् जन्म-मरण से मुक्त, त्रैलोक्य में प्रधान आत्मा को देव मानता है, जैसे जैनियों के सिद्ध, और कोई गंगा नदी आदि स्थानों में ही देवत्व की स्थापना करता है। इन दो भावों में प्रथम में सद्ज्ञान है और दूसरे में अज्ञान ।
१४२ सुहासुहाजणयं = शुभ + अशुभ + आजनकम् ।
,
१४६. यह दोहा ' उक्तं च रूप से श्रुतसागर ने भावप्राभृत की १६२ वीं गाथा की उद्धृत किया है:
टीका में निम्न रूप में
सीसु नमंतहं कवणु गुणु भाउ कुसुद्धर जाहं । पारद्धी दूणउ नमइ दुकंतर हरिणाहं ॥
और
१४७. इस दोहे की प्रथम पंक्ति परमात्मप्रकाश २०१ श्रुतसागर की चारित्र पाहुड़ पर ४१ वीं गाथा की टीका में इस प्रकार पाई जाती है-
णाणविहीणहं मोक्खपर जीव म कासु वि जोइ ।
१५७. इस दोहे का अर्थ अस्पष्ट है । किन्तु ज्ञात होता