________________
१२४
पाहुद्ध-दोहा
९७. यहां एक अक्षर से तात्पर्य सम्भवतः ॐ में है जो ब्रह्म, परमात्म या सोऽहं का भाववाचक है ।
९८. इस दोहे का निम्न ओक से मिलान कीनिय.
अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रम्
स्वल्पं तथायु बहवश्च विघ्नाः। सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु
हंसो यथा शीरनिवाम्बुमच्यात् ।।
९९. निर्लक्षण, लोवाह्य और अकुलीन, कुत्सित नायक तथा गुद्ध आमा के विशेषण हैं। आत्मा के अर्थ में अकुलीन का अर्थ होगा 'न को पृथिव्यां लीन: ' अर्यात् जो पृथ्वी व संसार में लीन न हो । अन्य दो विशेषण दोनों अर्थों में स्पष्ट ही हैं। दूसरी पंक्ति का भाव यह प्रतीत होता है कि जिस प्रकार गुप्क
और नीरसहदय व्यक्ति के प्रेम में पड़कर नायिका अनेक शृंगार करने पर भी उसे नहीं लूमा सकती, उसी प्रकार शुद्ध आना इन्द्रियविषयों द्वारा सदाकाल बन्धन में नहीं रखा जा सकता। रही मात्र अगले दोहे में भी है। भक्त का प्रेयसी बनकर परमाना को प्रेमी के रूप में सम्बोधन करने की प्रणाली पुरानी भक्तिरस-प्रधान कविता में बहुत पाई जाती है।
१०२. तात्पर्य यह कि जब तक योडा भी शरीर का माह रहेगा तब तक इट-वियोग और अनिष्ट-संयोग सदुद की उत्पत्ति