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टिप्पणी ११३ कह आये हैं कि पुण्य और पाप क्रमशः सुख और दुःख के कारण हैं । मुक्ति दोनों के नाश होने से ही मिल सकती है।
९४. इस दोहे का अर्थ कुछ अस्पष्ट है। अधिक अच्छे अर्थ के अभाव में मैने ऐसा अर्थ लगाया है । हाथ अर्थात् भुजामूल से नीचे जो हृदय-स्यान है वही आत्मदेव का मंदिर है। वह ऐसा सुरक्षित है कि वहां बाल का भी प्रवेश नहीं हो सकता। वहीं अर्थात् अपने गूढ हृदय में ही उप्त सच्चिदानन्द को ढूँढना चाहिये।
९५. इस दोहे का परमात्मप्रकाश में कुछ भिन्न पाठ पाया जाता है
अप्पापरह ण मेलयउ मणु मारिवि सहसत्ति। सो बढ जोएं किं करइ जासु ण एही सत्ति ॥२८८॥ प्रस्तुत दोहे का निम्न उपनिपद् वाक्य से मिलान कीजिये |
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो
न च प्रमादात्तपसो वायलिंगात् । एतैल्पायर्यतते यस्तु विद्वां स्तस्यैप आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥
मण्डूक, ३, ४. ९६. प्रथम पंक्ति का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार लिया गया है ‘स योगो यत् योगपतिः निर्मलं ज्योतिः पश्येत् । निर्मल ज्योति से तात्पर्य शुद्ध आत्मा का है।