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अनुवाद
. १९७ हे जीव! तूंविषय-कपाय को खोकर जिनवर का ध्यान
कर, जिससे, हे मूढ ! फिर कभी दुख न देखे और
अजरामर पद होवे। .१९८ हे मूर्ख! विषय-कपाय को छोड़ कर आत्मा में मन को
धारण कर, तथा चतुर्गति को चूर कर, अतुल परमात्म
पद को प्राप्त कर। . १९९ इन्द्रियों के प्रसार का निवारण करने में ही, हे मन !
परमार्थ जान । शानमय आत्मा को छोड़कर और शास्त्र कल्पित हैं।
,२०० हे जीव !तुं विषयों की चिन्ता मत कर । विषय भले
नहीं होते। सेवन करते समय तो मधुर लगते हैं,
किन्तु, हे मूर्ख! पीछे दुःख देते हैं। . २०१ विपय-कपाय में रंजित होकर आत्मा में चित्त नही
देता। दुष्कृत कर्मों को वांध कर चिरकाल तक संसार
में भ्रमण करता है। २०२ हे मुर्ख ! इन्द्रिय-विपयों को छोड़कर मोह का भी
परित्याग कर । अनुदिन परमपद का ध्यान कर । तो
यह व्यवसाय वने। .२०३ श्वास को जीत लिया, लोचन निस्पंद होगये, सब
व्यापार छूट गया। ऐसी अवस्था को पहुंच जाय वही जोग है, इसमें सन्देह नही।