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अनुवाद
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१६५ एक अच्छी तरह जानता है, दूसरा कुछ नही जानता । उसका चरित्र देव भी नही जानते । जो अनुभव करता है चही पूर्ण रूप से जान पाता है। पूछने वालों की संतृप्ति कौन लावे ? ( अर्थात् आत्मा का सच्चा ज्ञान स्वानुभव से ही हो सकता है, परोक्ष साधनों से नही । )
१६६ जो किसी प्रकार लिखा व पूछा नहीं जाता, जो कहने से किसी के चित्त में नहीं ठहरता, वह गुरु के उपदेश से ही चित्त में ठहरता है । इस प्रकार धारण करने वालों में वह कहीं भी स्थित है । ( अर्थात् जय गुरु के उपदेश से आत्मा का स्वरूप समझ में आ जाता है तब वह सर्वत्र दिखाई देने लगता है । )
१६७ नदी का जल जलधि द्वारा विरुद्ध दशा में प्रेरित होकर खिंचता है, तथा बड़ा भारी जहाज पवन से प्रेरित होकर ( चलता है ) । उसी प्रकार जब वोध और विवोध का संघट्ट होता है तब दूसरी ही बात प्रवृत्त हो जाती है ।'
१६८ आकाश में जो विविध शब्द सुनाई पड़ता है, दुर्मति उसके उत्तर में कुछ नही बोलता । जव मन पांचों [ इन्द्रियों ] सहित अस्त हो जाता है, तब, हे मृढ़,
वह परमतत्व स्फुट रूप से वहीं स्थित रहता है ।