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नेमिनाथमहाकाव्यम् ]
नवम सर्ग
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नाम और अक्षरों की समानता होने पर भी इन दोनो सुखो के स्वाद मे, गाय और स्नुही के दूध की तरह निश्चय ही महान् अन्तर है ॥२३॥
कामज्वर से पीडित विवेकहीन व्यक्ति ही धर्म रूपी लाभकारी ओषधि को छोड़कर नारी रूप औषध का सेवन करते हैं, जो आपाततः मधुर किन्तु अन्तत. कष्टदायक है ॥२४॥
__ जैसे जल से सागर को और इ घन से आग को, उसी प्रकार वैषयिक सुखो से आत्मा को कदापि तृप्त नहीं किया जा सकता ।।२।।
ब्रह्मलोक मे अनन्त तथा अक्षय सुख भोगती हुई यह प्रकाशस्वरूप शाश्वत आत्मा ही (नित्य) है ॥२६॥
तुम इसके बाद पुन ऐसा मत कहना। गवार लोगो के लिये उचित बात शिष्ट व्यक्ति को नही कही जानी चाहिए ॥२७॥
तुम सदा पास रहती हुई भी मेरे स्वभाव को नही जानती जैसे मेंढक साथ रह कर भी कमल की सुगन्ध को नहीं जान पाते ॥२८॥
प्रभु की बात सुनकर उन सव भाभियो ने पुनः सच्चे तथा सीधे शब्दो में यह कहा ॥२६॥
_हे नरशिरोमणि ! जगत्पूज्य | जिनेन्द्र श्री नेमिनाथ । आपने जो कुछ कहा है, वही सत्य है ॥३०॥
और हे पूज्य ! हम जानती हैं कि ये विषय तुम्हारे मन को तुष के ढेर के समान रमहीन (निस्सा र) प्रतीत होते हैं ॥३१॥
किन्तु पुत्रों को, विशेपकर विचार और आचार के ज्ञाता तुम्हारे जैसों को, अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिये ॥३२॥
पुत्र अपने कष्ट का विचार किये विना माता-पिता को प्रसन्न करते हैं। ' माता-पिता को कन्धे पर ढोने वाला श्रवण कुमार इसका उदाहरण है ॥३३॥