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नेमिनाथमहाकाव्यम् ]
षष्ठ सर्ग
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इन्द्र भी जिनके चरणो की चन्दना करते हैं, पुष्प उन्ही प्रभु के सिर पर चढ कर - विराजमान हुए । अथवा पवित्र व्यक्ति कहाँ उच्च स्थान नही प्राप्त करते ||१६|
जिनेन्द्र अलौकिक आभूषण पहनकर आँखो को अतीव सुन्दर लगने लगे । हम का शरीर पहले ही मनोरम होता है, स्वर्ण-कमल का सम्पर्क पाने पर तो कहना ही क्या ? ||२०||
अलौकिक वस्त्रो से रचित उस भेस ने जगदीश्वर के अद्वितीय सौन्दर्य मे तनिक भी वृद्धि नहीं की जैसे अमृत स्नान से चन्द्रमा ( की कान्ति) में कोई अन्तर नही आता ॥२१॥
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, उस समय तीनो लोको के चार-बार देखती हुई देवागनाओ के गये ॥२२॥ .
स्वामी को आनन्द और लज्जा के साथ विशाल एव निर्निमेष नयन कृतार्थं हो
'देवो तथा असुगे के क्रमल-तुल्य नेत्र, अन्य सव विषयो को छोडकर, एक साथ जिनेन्द्र के रूप पर ऐसे पड़े, जैसे भौंरे खिले हुए कमल-वन पर गिरते हैं ||२३||
तत्पश्चात् इन्द्र ने, जिसके कृपोल दीसिमान् चचल कुण्डलो की किरणो रूपी केसर से व्याप्त थे, हाथ जोडकर नम्रता पूर्वक भगवान् की स्तुति करना प्रारम्भ किया ||२४||
- जगद्वन्द्य भगवन् ! मैं विनीत, लक्ष्मी के आवास आपके चरण कमलो - मे प्रणाम करके उत्तम मुमुक्षुओ रूपी राजहसो द्वारा पूज्य आपकी स्तुति करना चारता हूँ ||२५||
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हे नाथ ! - सहस्राक्ष इन्द्र भी गुणो के अनुरूप आपके रूप को नही देख - सकता और सहस्रजिह्व शेषनाग भी आपके उत्कृष्ट गुणो का बखान करने मे समर्थ नही है ||२६|