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पष्ठ सर्ग [ नेमिनाथमहाकाव्यम् तव विधिवेत्ता देवताओ तथा असुरो के स्वामियो ने सुन्दर एव दीर्घ भुजाओ पी शाखाओ से युक्त, तीनो लोको को अभीष्ट फल देने वाले जिन स्पी कल्पवृक्ष का विधिपूर्वक अभिषेक किया। वे उस समय अपने हृदयकमलो मे यह सोच रहे थे कि आज हमारा देवत्व सफल है, स्वामित्व कृतार्थ है और आज हमने भवसागर को पार कर लिया है । अतिशय हर्प से दे ऐसे पुलकित हो गये जैसे वर्षा के जल से कदम्ब के कुज । वे भक्तिरस के कारण लड़खडा रहे थे और उनके अगदो के रत्न ( भीड के कारण ) आपस में टकरा रहे ... थे ॥६-११॥
घडो से प्रभु के सिर पर गिरता हुआ वह जल-समूह ऐसे लगता था मानो जिनेन्द्र को देखने को उत्सुक आकाशगगा का जलप्रवाह हो ॥१२॥
पहले वह जल जिनेन्द्र के शरीर से सिंहासन पर गिरा, वहां से पर्वत की चोटी पर, फिर वह वहां से भी नीचे जाकर ठहरा । अयवा जडवुद्धि ऊँचे कहां ठहर सकते हैं ? ॥१३॥
सुरो तथा असुरो के स्वामियो ने भी तीर्थंकर के शरीर के सम्पर्क से पवित्र उस जल की वन्दना की । गुणवानो की की गई सेवा मूों को भी तत्काल फल देती है ।।१४॥
प्रभु के सावले शरीर पर लगे हुए श्रीरसागर के दुग्वकण, आकाश मे (चमकते) नक्षत्रो तथा नीली शिला पर (जडे) मोतियो के समान प्रतीत हो रहे थे ॥१५॥
तब देवताओ द्वारा वजाए गये अलौकिक वाद्य मधुर स्वर मे वजने लगे । क्या गम्भीर व्यक्ति, पीटे जाने पर भी कभी कठोर बोलते हैं ? ॥१६॥
देवताओ ने काफूर, कस्तूरी, चन्दन, कालागुरु, कुंकुम आदि से प्रभु की अचर्ना करके उन्हें उत्तम पुष्पो, वस्त्रो तथा भूपडो से सजाया ॥१७॥
उनके शरीर पर देवो और असुरो द्वारा लगाया गया रगविरंगा, मनोरम कान्ति वाला सुगन्धित लेप, वादलो से घिरे आकाश मे सन्च्या की लालिमा के ममान शोभित हुआ ॥१८॥